पृथ्वीराज चौहान, दिल्ली पे राज करने वाले आखिरी हिन्दू सम्राट

Prithviraj Chauhan

पृथ्वीराज चौहान का जन्म ११६६ मे हुआ। सबसे महान राजपूत शासकों में से एक था। पृथ्वीराज चौहान, भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, हिन्दूसम्राट्, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं।

उन्होंने वर्तमान राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों को नियंत्रित किया। अपनी वीरता के लिए जाने जाने वाले, पृथ्वीराज चौहान की अक्सर एक बहादुर भारतीय राजा के रूप में प्रशंसा की जाती है, जो मुस्लिम शासकों के आक्रमण के खिलाफ खड़े थे।

पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही एक कुशल योध्दा थे, उन्होने युध्द के अनेक गुण सीखे थे। उसके पास केवल आवाज के आधार पर लक्ष्य को मारने का कौशल था।


पृथ्वीराज अजमेर के महाराज सोमेश्र्वर और कपूरी देवी की संतान थे

पृथ्वीराज विजय में उल्लेख है कि, पृथ्वीराज चौहान छओं भाषा में निपुण थे छः भाषाओं के अतिरिक्त पृथ्वीराज ने मीमांसा, वेदान्त, गणित, पुराण, इतिहास, सैन्य विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त किया था। वह सङ्गीत कला और चित्र कला में भी प्रवीण थे

शुभ मुहूर्त में पृथ्वीराज स्वर्ण सिंहासन पर आरूढ हुए। ब्राह्मणों ने वेदमन्त्र गान के साथ उनका राजतिलक किया। सभी सामन्तों द्वारा जय घोष हुआ और राजधानी में शोभा यात्रा हुई। शोभा यात्रा में हाथी पर आरूढ पृथ्वीराज के ऊपर नगर जनों ने पुष्प वर्षा की। सभी पृथ्वीराज की दीर्घायुष्य की प्रार्थना कर रहे थे। १२३५ विक्रम संवत्सर में पृथ्वीराज पंद्रह वर्ष (१५) के हुए थे। 

Prithviraj Chauhan
पृथ्वीराज की तेरह रानियाँ थी। उन में से संयोगिता प्रसिद्धतम मानी जाती है।


पृथ्वीराज चौहान और उनकी रानी संयोगिता का प्रेम आज भी राजस्थान के इतिहास मे अविस्मरणीय है
अपने दुश्मन, जयचंद की बेटी, संयुक्ता के साथ उनकी प्रेम कहानी बहुत प्रसिद्ध है। उस समय पृथ्वीराज की वीरता की प्रशंसा चारो दिशाओं में हो रही थी। एक बार संयोगिता ने पृथ्वीराज की वीरता का और सौन्दर्य का वर्णन सुना। उसके पश्चात् वो उन्हें प्रेम करने लगी।

वही संयोगिता के पिता जयचंद्र पृथ्वीराज के साथ ईर्ष्या भाव रखते थे, तो अपनी पुत्री का पृथ्वीराज चौहान से विवाह का विषय तो दूर दूर तक सोचने योग्य बात नहीं थी

जयचंद्र केवल पृथ्वीराज को नीचा दिखाने का मौका ढूंढते रहते थे, यह मौका उन्हे अपनी पुत्री के स्व्यंवर मे मिला राजा जयचंद्र ने अपनी पुत्री संयोगिता का स्व्यंवर आयोजित किया इसके लिए उन्होने पूरे देश से राजाओ को आमत्रित किया, केवल पृथ्वीराज चौहान को छोड़कर

पृथ्वीराज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से उन्होने स्व्यंवर मे पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के स्थान पर रखी 

दूसरी ओर जब संयोगिता ने जाना कि, पृथ्वीराज स्वयंवर में अनुपस्थित रहेंगे, तो उसने पृथ्वीराज को बुलाने के लिये दूत भेजा। संयोगिता मुझे प्रेम करती है ये जान कर पृथ्वीराज ने कन्नौज नगर की ओर प्रस्थान किया।

अश्वमेधयज्ञ के पश्चात् स्वयंवरकाल में जब संयोगिता हाथ में वरमाला लिये उपस्थित राजाओं को देख रही थी, तब द्वार पर स्थित पृथ्वीराज की मूर्ति को उसने देखा। संयोगिता ने मूर्ति के समीप जा कर वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के कण्ठ में पहना दी। उसी क्षण प्रासाद में अश्वारूढ पृथ्वीराज प्रविष्ट हुए। और दिल्ली आकार दोनों का पूरी विधि से विवाह संपन्न हुआ इसके बाद राजा जयचंद और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी और भी बढ़ गयी


Prithviraj Chauhan

पृथ्वीराज चौहान ने अठारह बार (18) घोरी को बन्दी कर छोड़ दिया था अन्तिम युद्ध में अर्थात् नरायन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय हुई थी।

तराइन के 'द्वितीय युद्ध' में उनकी हार को भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण माना जाता है क्योंकि इसने भारत के उत्तरी हिस्सों पर शासन करने के लिए मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए द्वार खोले।

मोहम्मद घोरी ई. ११७५ वर्ष में मुल्तान प्रदेश पर आधिपत्य प्रस्थापित कर उसी वर्ष उच्छ प्रदेश पर छल से आधिपत्य स्थापित कर चुका था। उसके पश्चात् ई. ११८२ वर्ष में दक्षिण सिन्ध प्रदेश के ऊपर आक्रमण करके शनैः शनैः उसने सिन्धुप्रदेश पर स्वाधिपत्य स्थापित किया।


Prithviraj Chauhan
प्रथम नरायनयुद्ध: ११९० वर्ष में नरायन का प्रथम युद्ध हुआ था। उस युद्ध में घोरी की पराजय हुई तथा पृथ्वीराज चौहान ने घोरी को बिन्दी भी बनाया था।

प्रथम नरायनयुद्ध में घोरी की पराजय के अनन्तर पृथ्वीराज के आदेश से मुक्त किया गया घोरी लाहोर गया। वहाँ उसके सैनिक उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। लाहोर प्रदेश में घोरी दो मास तक रुका। क्योंकि युद्ध में आहत घोरी की शारीरक वृण के लिये ओषधि आवश्यक थी। दो मास घोरी द्वारा लाहोर दुर्ग का नवनिर्माण भी करवाया गया। तत्पश्चात् वह अपनी सेना के साथ गझनी प्रदेश चला गया।




Prithviraj Chauhan

पृथ्वीराज चौहान और  घोरी 

तराइन के 'द्वितीय युद्ध' में पृथ्वीराज चौहान कि हार हुई थी। घोरी पृथ्वीराज को बन्दी बना कर गझनी प्रदेश ले गया। वहा उन्हे यतनाए दी गयी तथा पृथ्वीराज की आखो को लोहे के गर्म सरियो द्वारा जलाया गया, इससे वे अपनी आखो की रोशनी खो बैठे


चन्दबरदायी उस युद्ध में अनुपस्थित था, क्योंकि वह स्वयं पृथ्वीराज के आदेश से जम्मू में हाहुली हम्मीर नामक सामन्त के साथ सन्धि करने के लिये गया था। वहाँ हम्मीर नामक सामन्त ने चन्दबरदायी के परामर्श को अस्वीकार कर दिया और चन्दबरदायी को ही जालपा-देवी के मन्दिर में बिन्दी बना लिया। युद्ध के समाप्ति के पश्चात् चन्द मुक्तः हुआ। पृथ्वीराज पराजित हुए हैं और वें घोरी के बन्दी हैं ये समाचार चन्द को मिले। अतः वह अपने सम्राट् के उद्धार के लिये गझनी प्रदेश गया। वहाँ अपने वाक् चातुर्य से चन्द ने घोरी को प्रभावित किया।

तत्पश्चात् उनसे घोरी कहा कि, पृथ्वीराज अन्ध होते हुए भी कुशलतया लक्ष्य भेदने में समर्थ हैं। इस प्रकार घोरी को वो चमत्कार देखने के लिये प्रेरित किया।

और इसी प्रकार चंदबरदई द्वारा बोले गए दोहे का प्रयोग करते हुये उन्होने गौरी की हत्या भरी सभा मे कर दी। इसके पश्चात अपनी दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक दूसरे की जीवन लीला भी समाप्त कर दी। और जब संयोगिता ने यह खबर सुनी, तो उसने भी अपना जीवन समाप्त कर लिया


धर्म ही ऐसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुएं शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। पृथ्वीराज चौहान





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